Wednesday 16 July 2014

पृथक तेलंगाना राज्य

साख पर नए सवाल 

  Wed, 19 Feb 2014

इस पर संतोष नहीं जताया जा सकता कि आखिरकार अलग राज्य के रूप में तेलंगाना के गठन संबंधी विधेयक पर लोकसभा में मुहर लग गई। यह विधेयक जैसे माहौल में और जिस तरह पारित हुआ उससे कई गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं। इन सवालों के जवाब सामने आना इसलिए जरूरी है, क्योंकि मामला संसद की गरिमा का है। यह अकल्पनीय है कि इतने महत्वपूर्ण विधेयक पर लोकसभा में ढंग से चर्चा नहीं हो सकी और जो बहस हुई भी उससे देश अनजान ही अधिक रहा। विधेयक पेश करने वाले केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे को सदन के अंदर सुरक्षा घेरे की जरूरत पड़ी ताकि कोई उनके साथ धक्का-मुक्की न कर सके। इससे भी खराब बात यह हुई कि सदन की कार्यवाही का टीवी प्रसारण रोक दिया गया। एक तरह से देश को अंधेरे में रखकर एक नए राज्य के गठन का विधेयक पारित कराया गया। आखिर इस तरह से विधेयक पारित होने का गवाह बनने वाला विधानमंडल अपनी प्रतिष्ठा कैसे बनाए रख सकता है? यह विचित्र और हास्यास्पद है कि सदन की कार्यवाही का प्रसारण रोके जाने के मामले में पहले यह बताया गया कि ऐसा तकनीकी खामी के चलते हुआ। इस कथित तकनीकी खामी पर संदेह जताने के पर्याप्त आधार नजर आते हैं, खासकर यह देखते हुए कि जब प्रसारण रोका गया तो लोकसभा टीवी के जरिये दर्शकों को यह संदेश दिया गया कि सदन की कार्यवाही स्थगित हो गई है। क्या यह गुमराह करने वाला संदेश भी तकनीकी खामी का दुष्परिणाम था?  यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि जिसे तकनीकी खामी कहकर छिपाया जा रहा है वह संसदीय तौर-तरीकों के संचालन की खामी का नतीजा हो सकता है। वैसे भी यह स्पष्ट है कि संसद की कार्यवाही का सही तरह से चलना दिन-प्रतिदिन दूभर होता जा रहा है और 15वीं लोकसभा में तो कई बार ऐसा हुआ जिससे संसद की गरिमा को ठेस पहुंची। इसके लिए सभी राजनीतिक दल जिम्मेदार है,ं लेकिन सत्तापक्ष कुछ ज्यादा ही जिम्मेदार ठहराया जाएगा। यह लगभग तय है कि राज्यसभा में भी आंध्र प्रदेश पुनर्गठन विधेयक को मंजूरी मिल जाएगी। इसके साथ ही यह भी संभव है कि तेलंगाना के रूप में 29वें राज्य के गठन की प्रक्रिया गति पकड़ ले, लेकिन यह कहना कठिन है कि आंध्र प्रदेश में राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर सब कुछ सामान्य हो जाएगा। यह कहना इसलिए कठिन है, क्योंकि किसी नए राज्य के गठन की प्रक्रिया को जिस तरह से आगे बढ़ाया जाना चाहिए था और ऐसा करते समय संबंधित पक्षों की भावनाओं को समझने की कोशिश की जानी चाहिए थी वैसा कुछ नहीं हुआ। केंद्र सरकार चाहे जैसा दावा क्यों न करे, देश की जनता को यही संदेश गया कि उसने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थो के फेर में आनन-फानन एक नए राज्य के गठन को मंजूरी प्रदान कर दी। यह सही है कि राजनीतिक दलों के फैसले किसी न किसी स्तर पर सियासी लाभ को ध्यान में रखकर ही अधिक होते हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे मनमानी करने में भी संकोच न करें। दुर्भाग्य से तेलंगाना के गठन के मामले में सिर्फ और सिर्फ वोटों के समीकरणों को दुरुस्त करने पर ही अधिक ध्यान दिया गया। संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ वाले इस तरह के फैसले देश को नुकसान पहुंचाने वाले साबित हो सकते हैं।
[मुख्य संपादकीय]
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कहीं खुशी, कहीं गम

हिंसा की लपटों के साए में देर से ही सही, लेकिन आखिर लोकसभा ने पृथक तेलंगाना राज्य सम्बंधी विधेयक को मंजूरी प्रदान कर ही दी। सीमांध्र के सांसदों और वहां की जनता के भारी विरोध के बावजूद मामला इतना आगे बढ़ चुका था कि अलग तेलंगाना बनाने के अलावा सरकार के पास दूसरा विकल्प भी नहीं बचा था।  अलग राज्य का बनना जहां 58 साल से उम्मीद लगाए बैठे तेलंगानावासियों के लिए खुशी का मौका है, वहीं पृथक राज्य का विरोध कर रहे सीमांध्र के लोगों के लिए यह दुख की घड़ी है। अलग राज्य बनने को न किसी की हार के रूप में देखने की जरूरत है और न जीत के रूप में। लोकसभा में पारित होने के बाद विधेयक का राज्यसभा में पारित होने से अधिक महत्वपूर्ण सीमांध्र में शांति व्यवस्था बहाल रखना है।  पिछले लम्बे समय से सुलग रहे सीमांध्र को फिर पटरी पर लाने के लिए जरूरी है कि न सिर्फ सरकार और सत्तारूढ़ दल, बल्कि सभी राजनीतिक दल राज्य में शांति स्थापित करने के प्रयास करें। ध्यान इस बात का भी रखा जाना चाहिए कि अलग राज्य बनने से पैदा होने वाली विसंगतियों का हल समय रहते निकाला जाए। वर्ष 2009 में यूपीए के सत्ता में आने के बाद अगर पृथक तेलंगाना राज्य बनाने की दिशा में गंभीर प्रयास किए जाते, तो शायद यह मामला इतना तूल नहीं पकड़ता।  केन्द्र में अगली सरकार जिस भी राजनीतिक दल अथवा गठबंधन की बने, उसे राजनीतिक रोटियां सेंकने की बजाय समस्या के स्थायी समाधान निकालने के प्रयास करने चाहिए। देश में पृथक विदर्भ, बुंदेलखंड, हरित प्रदेश, पूर्वाचल और गोरखालैण्ड जैसे राज्यों के गठन का मामला भी लम्बे समय से गर्माता रहा है। राजनीतिक लाभ-हानि के गुणा-भाग और टालमटोल की नीति अपनाने की बजाय, यदि समय रहते कोई समाधान तलाशने की कोशिश की जाए, तो बेवजह की हिंसा और टकराव से बचा जा सकता है।  आंध्र प्रदेश बंटवारे के कड़वे अनुभवों से सीख लेकर भविष्य में सभी पक्षों को एक टेबल पर लाकर रास्ता निकालने के ईमानदार प्रयास किए जाएं, तो विवाद की आशंका को टाला जा सकता है। राजनीतिक दलों को अपनी राजनीति और देश को अलग-अलग रखकर देखना होगा।  जब तक किसी राजनीतिक दल से ऊपर देश को नहीं समझा जाएगा, तब तक इस तरह के अनुभव हमारे सामने आते रहेंगे। राजनीति में टकराव की जगह सामंजस्य को महत्व दिया जाए, तो बहुत-सी समस्याओं का समाधान स्वत: ही निकल सकता है। करीब तेरह साल पहले बने उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ का अनुभव भी हमारे सामने है।
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